Wednesday 23 July 2014

जिंदगी जैसे ठहर सी गई है...

जिंदगी मेरी जैसे ठहर सी गई है, दरिया के किसी ठहरे हुए पानी की तरह शून्य हो गई है। दिल-ओ-दिमाग में केवल एक ही ख्याल रहने लगा है। ना सोचने की समझ बाकी रह गई है और ना ही कुछ समझने की कोशिश कर पाता हूं। खुले आसमान में बिना बंदिशों के आजाद उड़ने वाले परिंदे के जैसे पंख कुदर गए हैं। कभी ऐसा लगता है कि मेरे साथ कुछ गलत हो रहा है। कोई गलत कर रहा है मेरे साथ तो कभी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जैसे मैं ही गलत हूं। मैं ही अपने और जिंदगी के साथ गलत कर रहा हूं। असमंजस में फंसा हूं। एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ उससे भी गहरी खाई। कहां जाउं, क्या करूं...समझ नहीं आ रहा है।
जितना भी दूर जाने की कोशिश करता हूं, मैं अपने आपको उतना ही जिंदगी के नजदीक पाता हूं। चाहकर भी ना ही उसे छोड़ पा रहा हूं और ना ही उसे भूल पा रहा हूं। दर्द सिर्फ इतना ही नहीं है, नासूर तो जिंदगी की फितरत है। न तो जिंदगी मुझे अपनाने के लिए तैयार है, न ही मेरा बनने के लिए तैयार है और न ही मुझे दूर रहना चाहती...अजीब पेशोपेश में है जिंदगी भी और मैं भी।
सच बताउं तो अपनी ही उलझनों उलझकर रह गया हूं। काम में दिल नहीं लगता, भूख मर चुकी है, नींद आती नहीं और चैन-करार कहीं मिलता नहीं। बस, एक ही सवाल हर वक्त दिमाग में कौंधता रहता है कि आखिर जिंदगी मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही हैं? आखिर मेरा गुनाह क्या है? अगर ऐसा ही रहा तो मैं जिंदगी को हासिल करने की आस में जिंदगी भर घुट-घुटकर मरता रहूंगा।
अब तो आलम ये है कि ना मैं मर पा रहा हूं और ना ही जी पा रहा हूं। जिंदगी गर मेरी हो जाए तो जैसे सारे जहां की खुशियां मेरे कदम चूमें और अगर दूर चली गई तो मैं सच में मिट्टी में मिल जाउंगा। उसकी ना ना के बीच में हां हां ने मझधार अटकाया हुआ है। इंकार के साथ उसकी नजदीकियों के अहसास ने मुझे हर पल उसका बनाया है, तभी तो कभी हां तो कभी ना के भंवर में फंसा हूं। नतीजन, शरीर के नाम पर धीरे-धीरे हड्डियों का ढ़ांचा रह जाएगा। हां, अगर जिंदगी बस एक बार कह दे कि मैं तेरी हूं और तेरी रहूंगी.....उलझन से निकल जाउंगा। चंद रोज में हर मंजिल के रास्तों को आसान कर दूंगा...वादा नहीं दावा है।

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